एजेंसी, नई दिल्ली। कोविड -19 महामारी के दौरान संक्रमण दर को कम करने के लिए प्लास्टिक उत्पादों के जबरदस्त उपयोग ने प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन और निपटान प्रणालियों पर बहुत दबाव डाला है। संक्रमण को रोकने और वायरस के प्रसार को थामने के लिए फेस मास्क का उपयोग अनिवार्य है। पर उनका सही से निस्तारण न होने की वजह से फेस मास्क का कचरा बढ़ रहा है। इस कारण से हर साल 15.4 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक पैदा हो रहा है जो कि सेहत के साथ-साथ पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक है। यह बात श्री रामस्वरूप मेमोरियल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों डॉ. सौरभ शुक्ला, रमशा खान और डॉ. अभिषेक सक्सेना के अध्ययन में सामने आई है।
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रामस्वरूप मेमोरियल विश्वविद्यालय (सिविल इंजीनियरिंग संकाय) के शोधकर्ता डॉ. सौरभ शुक्ला और टीम ने बताया कि 36 देशों से करीब करोड़ टन से अधिक फेस मास्क निष्कासित हुए हैं। जिनसे करीब 17 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक उत्पन्न होती है। डा. शुक्ला ने बताया कि भारत में हर साल करीब 23,888.1 करोड़ मास्क उपयोग किए जाते हैं। इनका कुल वजन करीब 24.4 लाख टन होता है। वहीं इसकी वजह से करीब 15.4 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक और पॉलीप्रोपोलीन (पीपी) उत्पन्न हो रहा है।
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चीन की आबादी दुनिया में सबसे ज्यादा है। इस लिहाज से यहां सबसे ज्यादा फेस मास्क उपयोग किए जाते हैं। चीन की कुल आबादी 1,43,93,23,776 है। यह आबादी करीब 40.8 लाख टन फेस मास्क हर साल उपयोग कर रही है, जिससे करीब 25.8 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक पैदा हो रहा है। भारत की जनसंख्या 24.37 लाख टन फेस मास्क प्रति वर्ष इस्तेमाल कर रही है जिससे करीब 15.41 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक का उत्पादन हो रहा है।
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डा. शुक्ला ने बताया कि कोविड-19 महामारी के दौरान फेस मास्क के उपयोग में बेतहाशा वृद्धि ने स्थलीय और समुद्री पारिस्थितिकी के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। इनका सही तरीके से प्रबंधन जरूरी है। विशेष रूप से विकासशील देशों में शहर में कचरे के ढेर में छोड़े गए फेस मास्क वायरस के प्रसार का माध्यम हो सकता है। बीते कुछ अध्ययनों में ये सामने आया है माइक्रोप्लास्टिक की वजह से मिट्टी दूषित हो रही है। वहीं समुद्री जीवों के इसके निगलने से कई तरह के दुष्प्रभाव सामने आ रहे हैं। अध्ययन में कहा गया है कि समुद्री जीवन पर माइक्रोप्लास्टिक का संभावित प्रभाव समुद्री जीवों (समुद्री कछुए, मछलियों, व्हेल आदि) को खतरे में डालता है। ये समुद्री जीव अक्सर गलती से माइक्रोप्लास्टिक को निगल जाते हैं और कई बार उलझ जाते हैं जिससे चोट और मौत हो जाती है।
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क्या है माइक्रोप्लास्टिक?
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नेशनल ओशनिक एंड एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन (नोआ) के अनुसार, माइक्रोप्लास्टिक 0.2 इंच (5 मिलीमीटर) से छोटे प्लास्टिक के कण हैं। देखने में इनका आकार एक तिल के बीज के बराबर हो सकता है। समुद्री जीवों के द्वारा माइक्रोप्लास्टिक निगला जा रहा है, उन्हीं जीवों को समुद्री भोजन (सी-फूड) के रूप में मनुष्यों द्वारा खाया जा रहा है। यहां तक कि अगर आप समुद्री भोजन नहीं भी खाते हैं, तो आप अपने पीने के पानी के माध्यम से एक या दूसरे स्थान पर माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आ गए हैं।
यूएस नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन और यूरोपियन केमिकल्स एजेंसी के अनुसार आकार में माइक्रोप्लास्टिक पांच मिमी से कम इंच के किसी भी प्रकार के प्लास्टिक के टुकड़े होते हैं। वे सौंदर्य प्रसाधन, कपड़े और औद्योगिक प्रक्रियाओं सहित विभिन्न स्त्रोतों से प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में प्रवेश करते हैं।इन्हें आगे दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है- प्राथमिक माइक्रोप्लास्टिक्स – कोई भी प्लास्टिक के टुकड़े या कण जो पर्यावरण में प्रवेश करने से पहले ही पांच मिमी या उससे कम आकार के होते हैं। इनमें कपड़े, माइक्रोबीड्स और प्लास्टिक छर्रों से माइक्रोफाइबर शामिल हैं। द्वितीयक माइक्रोप्लास्टिक प्राकृतिक अपक्षय प्रक्रियाओं के माध्यम से बड़े प्लास्टिक उत्पादों के क्षरण से उत्पन्न होता है। द्वितीयक माइक्रोप्लास्टिक के स्रोतों में पानी और सोडा की बोतलें, मछली पकड़ने के जाल, प्लास्टिक बैग, माइक्रोवेव कंटेनर और टी बैग शामिल हैं।
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माइक्रोप्लास्टिक निगलने के क्या है खतरे ?
माइक्रोप्लास्टिक निगलने के कई खतरे हैं। उदाहरण के लिए, बिस्फेनॉल ए (बीपीए) से व्यवहार में परिवर्तन और रक्तचाप में वृद्धि हो सकती हैं। पीबीडीई के कारण मनुष्यों में तंत्रिका प्रणाली पर असर हो सकता है, साथ ही यकृत और गुर्दे को भी नुकसान हो सकता है। यह मसूड़े, त्वचा में जीवाणु संक्रमण का कारण बन सकते हैं, आंख में चिपक कर कार्निया को घायल कर सकते हैं। चेहरे के सौंदर्य उत्पादों में मौजूद माइक्रोबीड्स त्वचा के छोटे-छोटे उभार और आगे के संक्रमण का कारण बन सकते हैं। हवा में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक सांस के जरिये फेफड़ों को प्रभावित कर सकते हैं। फूड चेन में माइक्रोप्लास्टिक की उपस्थिति मानव भोजन में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करती है जिससे मनुष्य के लिए जहरीले रसायनों का सीधा संपर्क बढ़ जाता है।