नई दिल्ली : (फरमान मलिक) आज पूरे देश में धूमधाम से बकरीद का त्योहार मनाया जा रहा है। बकरीद के त्योहार का मुस्लिम धर्म में बहुत महत्व है। इस्लामिक कैलेंडर के 12वें महीने जुल-हिज्जा की 10 तारीख को ईद उल-अजहा का पर्व मनाया जाता है. 19 तारीख को जुल-हिज्जा महीने का चांद नजर आ गया था.
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जिसके बाद 29 जून 2023 को ईद (Eid al-Adha 2023) मनाना तय किया गया था. इस त्योहार को ईद-उल-अजहा या कुर्बानी का त्योहार भी कहा जाता है। रमजान के पवित्र महीने के ठीक 70 दिन बाद बकरीद मनाई जाती है। वैसे तो बकरीद की तारीख चांद दिखने से तय होती है, पूरे भारत में आज बकरीद मनाई जा रही है। इस दिन नमाज पढ़ने के बाद कुर्बानी दी जाती है. बकरीद के त्योहार को बकरीद, ईद कुर्बान, ईद-उल अजहा या कुर्बान बयारामी भी कहा जाता है। इस मौके पर दिल्ली की जामा मस्जिद पर नमाज अदा की गई जिसमें भारी संख्या में नमाजी पहुंचे।
चलिए आज बकरीद (Bakrid 2023) पर आपको कुर्बानी के महत्व और नियमों के बारे में बताते हैं.
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बकरीद पर कुर्बानी का महत्व
इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक, पैगंबर हजरत इब्राहिम ने अल्लाह की इबादत में खुद को समर्पित कर दिया था। एक बार अल्लाह ने हजरत इब्राहिम की परीक्षा ली और उनसे उनकी कीमती चीज की कुर्बानी मांगी। तब उन्होंने अपने बेटे हजरत इस्माइल को कुर्बानी देनी चाही। लेकिन तब अल्लाह ने पैगंबर हजरत इब्राहिम के बेटे की जगह वहां एक बकरे की कुर्बानी दिलवा दी। कहते हैं कि तब से ही मुसलमानों में बकरीद पर बकरे की कुर्बानी देनी की परंपरा शुरू हुई।
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तीन हिस्सों में बांटी जाती है कुर्बानी
बकरे या जिस भी जानवर की कुर्बानी (Kurbani) दी जाती है. उसके मांस के तीन हिस्से किए जाते हैं. कुर्बानी का पहला हिस्सा रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए होता है. ईद पर गरीबों का भी ख्याल रखा जाता है. कुर्बानी का दूसरा हिस्सा गरीब और जरूरतमंद लोगों के लिए होता है. तीसरा हिस्सा घर परिवार के सदस्यों के लिए होता है.
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इस्लाम (Islam) के अनुसार, किसी समय अल्लाह के एक पैंगबर (Prophet) हुए हजरत इब्राहिम. वे हमेशा अल्लाह के दिखाए सच्चाई के रास्ते पर चलते थे. वे सभी से प्रेम करते थे और दूसरे लोगों को भी अल्लाह के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करते थे. एक दिन उन्हें सपने में अल्लाह ने आकर अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करने का हुक्म दिया. हजरत इब्राहिम (Hajrat Ibrahim) को अपना बेटा इस्माईल सबसे ज्यादा प्यारा था. हजरत साहब ने उसे ही कुर्बान करने का फैसला किया. बेटे की कुर्बानी देते समय उनका हाथ न रुक जाए, इसलिए पैंगबर ने अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर छुरी चलाई और जब पट्टी हटाई तो इस्माईल सही-सलामत था और उसकी जगह एक भेड़ पड़ा था. तभी से कुर्बानी देने की प्रथा शुरू हुई जो आज भी निभाई जा रही है.